कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप।
जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही।
72 वर्ष पूरे हो गए हैं हमारे गणतंत्र को। हम इतने वर्षों में क्या बने पता नहीं लेकिन एक बात तो तय है कि हम कुछ भी बने हो या ना बने हो 'मतदाता' अवश्य बने हैं। जबकि एक गणतंत्र के लिए हमें नागरिक बनना था।
नागरिक...? वो तो हम देश के गणतंत्र बनने के साथ ही थे।
कोई भी देश गणतंत्र कब होता है?
जब किसी देश का अध्यक्ष(प्रेसिडेंट) उस देश के नागरिकों द्वारा प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है तो वह देश गणतंत्र/गणराज्य (republic) कहलाता है। जैसे अमेरिका में(प्रत्यक्ष), भारत में(अप्रत्यक्ष)।
बात करें भारत की तो यहां का राष्ट्राध्यक्ष/राष्ट्रपति नागरिकों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से नहीं चुना जाता बल्कि हमारे द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधियों (MP/MLA) द्वारा चुना जाता है। इसलिए भारत एक 'गणराज्य' है।
अब बात आती है इस गणराज्य में रहने वाले 'गण' की मतलब यहां के लोगों की यहां के नागरिकों की।
एक नागरिक के रूप में हमारे क्या अधिकार और कर्त्तव्य हैं? हम किन संदर्भों में अपनी नागरिकता को जानते हैं? क्या केवल तब जब हमारे हाथ के नाखून में नीली स्याही लगाई जाती है या इसके भी परे?
इन 72 वर्षों की यात्रा में हमें अब तक एक नेक नागरिक से 'नागरिक सामाज' तक की यात्रा पूरी कर लेनी थी लेकिन हम नागरिक तो क्या सिर्फ 'मतदाता' बन कर ही रह गए हैं। हमने स्वयं को देश का वासी होने के स्थान पर किसी सियासी दल का सदस्य बना कर रखा है। हम देश के ऊपर अपनी क्षेत्रीय, जातीय,भाषीय और धार्मिक पहचान को वरीयता देते हैं।
चुनावों में हमने अक्सर अपनी नागरिकता अर्थात् देश बोध को बेच कर क्षणिक लाभ कमाया है। फिर हम रोना रोते हैं कि इन राजनीतिकों द्वारा हमारी बातें नहीं सुनी जाती। आखिर सुनी भी क्यों जाएं? जब हमने वोट किसी मुद्दे पर ना देकर मुद्रा के बदले दिया था तो ऐसे में उम्मीद करना भी बेईमानी है।
अब वह समय आ गया है कि हम अपनी नागरिकता बोध का एहसास करें। किसी भी नेता,विचार और दल से ऊपर उठकर देश को प्राथमिकता दे। तभी हमारे अधिकारों की रक्षा होगी और हम मतदाता से नागरिकता तक की दूरी को तय कर पाएंगे और ऊपर लिखी दुष्यंत कुमार जी की मशाल रूपी कविता की रोशनी सलामत रख पाएंगे साथ ही सच्चे अर्थों में एक गरिमामयी गणतंत्र की स्थापना कर पाएंगे।
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