यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।
हमारी भारतीय संस्कृति में जहाँ एक ओर यह मान्यता है कि जहाँ नारियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं, वहीं दूसरी ओर हम एक बेटी के जन्म पर बेटे के जन्म की अपेक्षा कम प्रसन्न होते हैं। यहां एक द्वंद है जो मुझे समझ नहीं आता एक तो हम देवता को अपने घर लाना चाहते हैं वहीं दूसरी ओर हम बेटी के जन्म पर मन भर खुशियां भी ज़ाहिर नहीं कर पाते, आखिर हम चाहते क्या हैं? 2018 का आर्थिक सर्वेक्षण भी यही दर्शाता है कि 2.1 करोड़ बेटियों का जन्म बेटों की चाहत में हो गया अर्थात अवांछित बेटियों ने इस पवित्र पावन धरा पर जन्म लिया जहां उनका होना देवता की उपस्थिति माना जाता है। माहेश्वर तिवारी जी ने क्या खूब कहा है -
"एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है,
बेजुबां छत दीवारों को भी घर कर देता है।"
महिला सशक्तिकरण या नारी शक्ति वर्ष 2018 का ऑक्सफोर्ड वर्ड ऑफ द ईयर था। अपितु जब तक हम महिलाओं को स्वयं निर्णय लेने की शक्ति नहीं प्रदान करेंगे तब तक सशक्तिकरण मात्र कागजों में ही नारियों को बुलंद करेगा धरातल पर नहीं।
आज भी हम हिंदी शब्दकोश में एक ऐसा स्वतंत्र शब्द नहीं जोड़ पाए जो महिलाओं के शक्ति या शौर्य प्रदर्शन को सिद्ध करता है उसके लिए भी हमें 'मर्दानी'(मर्द का स्त्रीलिंग)शब्द का प्रयोग करना पड़ता है।
महिला सशक्तिकरण का तात्पर्य यह नही है कि महिलाओं को पुरुषों के समानांतर लाकर खड़ा कर दिया जाए अपितु यह है कि महिलाओं के स्वतंत्र अस्तित्व एवं उनके स्वनिर्णय को उचित सम्मान दिया जाना चाहिए।
आज भले ही सरकारी आंकड़े यह सिद्ध करने पर आमादा हो कि उनकी योजनाओं के तहत जन धन योजना में 53% महिलाओं ने खाते खुलवाए हो या मुद्रा योजना के तहत 70% महिलायें लाभार्थी हो या स्टैंड अप इंडिया योजना के तहत 81% महिलाओं को लाभ पहुंचाया गया है। ऐसे में मुझे अदम गोंडवी जी की पंक्तियां याद आती हैं -
"तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है"
देश की सबसे निचली संसद अर्थात पंचायतों में महिलाओं के लिए एक तिहाई या कुछ राज्य में 50% तक सीटें आरक्षित हैं परंतु वास्तविक स्थिति 'घूंघट के पीछे गांव की सरकार' जैसी है।
इंदिरा गांधी, राजकुमारी अमृत कौर, विजय लक्ष्मी पंडित,प्रतिभा पाटिल,सुषमा स्वराज, सुमित्रा महाजन, निर्मला सीतारमण, सिंधुताई सपकाल, तयम्मलजी, तुलसी गौड़ा, पीवी सिंधु, मीराबाई चानू, अवनी लेखरा, लोवलीना आदि विभिन्न क्षेत्रों की महिलाएं अपने - अपने क्षेत्रों में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर चुकी हों या कर रहीं हो, ऐसे में देश की 138 करोड़ आबादी में से चंद महिलाओं का प्रदर्शन देश की आधी आबादी का उत्थान नहीं माना जा सकता।
महिलाओं को ना तो देवी लक्ष्मी या देवी सरस्वती जैसा स्थान देने की आवश्यकता है और ना ही उन्हें अपनी सेविका और दासी बनाने का। हमें आवश्यकता है महिलाओं के साथ मानवीय व्यवहार करने की। यदि कोई पुरुष, महिला पर अपना आधिपत्य स्थापित करके अपने पौरुष पर गर्व करता हो तो मेरे अनुसार उसे ऐसे व्यर्थ के काम पर समय नहीं बर्बाद करना चाहिए। प्रत्येक पुरुष के भीतर एक नारी विद्यमान होती है। 1913 में जब गुरुदेव को साहित्य के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार मिला तो उनसे पूछा गया कि आपने गीतांजलि की रचना कैसे की तो उनका उत्तर था - "मेरे भीतर एक नारी निवास करती है और जब वह रो देती है तो मैं लिख देता हूं।"
सभी महिलाओं को शुभकामनाएं कि वें उत्तरोत्तर अपने जीवन में वांछित सफलताएं हासिल करते रहें और अपनी सृजन क्षमता से इस धरा को सुसज्जित करती रहें।
आखिर में एक बात याद आई सभ्यता, संस्कृति, शालीनता, सौंदर्य और शोभा की प्रतिमूर्ति होती हैं भारतीय महिलाएं।
शुभांशु साहू
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