किसी भी राष्ट्र की शासकीय व्यवस्था का संचालन कैसे होगा? उसके नागरिकों के अधिकार और कर्तव्य क्या होंगे? यह सब जिस पुस्तक में वर्णित होता है उसका नाम है संविधान। हमने अपना संविधान बनाकर विधि सम्मत व्यवस्था स्थापित की। संविधान के चार प्रमुख स्तंभ है, व्यक्तिगत स्वायत्तता एवं स्वतंत्रता; बिना किसी भेदभाव के समानता; हमारी गरिमामयी पहचान की मान्यता; एवं निजता का अधिकार ही वे चार आधार स्तंभ हैं जिस पर भारतीय संविधान टिका है।
समता, समानता, समरसता, समान अधिकार और समान अवसर भारतीय संविधान की आत्मा हैं। संविधान का उद्देश्य है कि वैयक्तिक स्वतंत्रता और सामाजिक सुरक्षा में सही संतुलन हो।
यह संविधान 26 नवंबर, 1949 को बन तो गया, पर इसे बनाने वाली सभा ही जनता से सीधे नहीं चुनी गई थी और इसकी वैधता के लिए जरूरी था कि इस पर जन-स्वीकृति की मोहर लगवाई जाए। इस जिम्मेदारी को निभाया पंडित जवाहरलाल नेहरू ने, जो प्रधानमंत्री होने के साथ-साथ 1952 के पहले आम चुनाव के ठीक पहले एक बार फिर कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिए गए थे। चुनाव के पहले 1951 में उन्होंने देश भर में घूम-घूमकर 300 सभाएं कीं। जालंधर से शुरू हुई उस शृंखला में उनका एक ही एजेंडा था, लोगों को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के लिए तैयार करना। हर सभा में वह इस सवाल से अपना कार्यक्रम शुरू करते, देश बंटवारे के साथ आजाद हुआ है, हमारे बगल में एक धर्माधारित इस्लामी हुकूमत कायम हो गई है, अब हमें क्या करना चाहिए? क्या हमें भी एक हिंदू राज बना लेना चाहिए? इन सवालों के जवाब वह खुद अगले डेढ़ घंटे तक आसान हिन्दुस्तानी भाषा में देते। वह लगभग अशिक्षित श्रोताओं को अपने तर्कों से कायल करके ही भाषण समाप्त करते कि कैसे देश की एकता, अखंडता और तरक्की के लिए एक धर्मनिरपेक्ष भारत जरूरी है।
संविधान निमार्ताओं ने सेकुलर शब्द को भारत की सर्व-स्वीकार्य परंपरागत संस्कृति का भाग माना और इसी कारण उसे संविधान में सम्मिलित करना आवश्यक नहीं माना। 1976 में संविधान संशोधन द्वारा इसे उद्देशिका में लाया गया। यह तो गहन अध्ययन का विषय बनना चाहिए कि इसके संविधान में शामिल होने के बाद देश में पंथनिरपेक्षता बढ़ी या घटी, या क्या सब धर्मों की समानता की स्वीकार्यता बढ़ी? विचार का विषय है।
अम्बेडकर द्वारा परिभाषित भारत जिसकी छवि तो भारतीय संविधान में अंकित है लेकिन धरातल पर कितनी? निश्चित तौर पर भारत ने पिछ्ले 75 वर्षों में विश्व पटल पर अपनी अलग पहचान स्थापित की है। लेकिन अभी भी अंबेडकर द्वारा परिभाषित छवि को संविधान से निकालकर ज़मीन में आना बहुत हद तक शेष है।
भारत के संविधान ने स्वतंत्रता और अधिकार सशर्त प्रदान नहीं किए हैं। हमने अधिकार और कर्तव्यों की संबद्धता के सिद्धांत को इस रूप में स्वीकार नहीं किया है कि कर्तव्य नहीं तो अधिकार नहीं या इसके उलट अधिकार नहीं तो कर्तव्य नहीं। इसलिए कोई तमाम बुनियादी कर्तव्यों की अनदेखी कर सकता है, तो भी उसके बुनियादी अधिकार बने रहते हैं। बुनियादी कर्तव्य भारतीय संविधान का शुरुआती हिस्सा नहीं रहें हैं। लेकिन बदलते समय में एक नागरिक समाज का हिस्सा होने के नाते हमें इन कर्तव्यों को आत्मसात करना होगा।
भारत के संविधान की मूल प्रति में मौलिक अधिकारों से जुड़े भाग के आरम्भ में एक चित्र है जो मर्यादा पुरुषोत्तम राम, माता सीता और भाई लक्ष्मण का है जिसमें वे सभी 14 वर्ष का वनवास पूरा करके अयोध्या वापस लौट रहें हैं। यह समझना आवश्यक होगा कि क्यों संविधान के इस भाग में यह चित्र ही सबसे उपयुक्त चयन है? सदियों की गुलामी के बाद देश आज़ाद हुआ। मौलिक अधिकारों के लागू होते ही सभी नागरिकों को देश में विभिन्न प्रकार के भेदभावों से मुक्ति मिली। यह चित्र भी यही इंगित कर रहा है कि चौदह वर्षों के वनवास के बाद अयोध्या वापसी, रामराज्य की उद्घोषणा है।
भारतीय संविधान हमें हमारी भाषा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। संविधान की 8वीं अनुसूची में 22 भाषाएं स्थान पाती हैं, निश्चित तौर पर बहुत सी भाषाएं इस अनुसूची में अपना स्थान दर्ज कराने की प्रतीक्षा में हैं और समय-समय पर बहुत सी भाषाओं को इस अनुसूची में दर्ज करवाया भी गया है। प्रारम्भ में 14 भाषाएं ही अंकित थी इस अनुसूची में।
संविधान के प्रावधानों के अनुसार स्थानीय निकायों के पदाधिकारियों को निधियों एवं शक्तियों का हस्तांतरण भी सराहनीय है। भारतीय संविधान के मूल में है विकेंद्रीकरण की अवधारणा जो गांधीवादी विचारों से प्रेरित है और अनुच्छेद 40 में स्थान पाती है।
यही इस देश की और संविधान की विशेषता है जहां हम एकरूपता में नहीं एकता में बल देते हैं। हम एक में नहीं अनेक में विश्वास रखते हैं। विविधता जिसका मूल तत्व है। आत्मनिर्भरता के मंत्र को आत्मसात करने वाला है यह देश और इसका संविधान। जो नगरीय नहीं नागरिक विकास पर बल देता है। यही है भारतीय संविधान और यही यह हमारी पहचान।
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